Friday, 28 June 2013

अपदा का ये कैसा मंजर

प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने का नतीजा सबके सामने हैं। लगातार हो रही पेड़ों की कटाई व पहाड़ों के कटाव से ये गंभीर स्थिति पैदा हुई। कई दिनों तक लगातार बारिश और नदियों में जल-स्तर क्रमश: बढ़ते जाने के फलस्वरूप जो बाढ़ आती है उसका पहले से अंदाजा हो जाता है। लेकिन अचानक अतिवृष्टि, बादल फटने और भूस्खलन के कारण उत्तराखंड में आई आपदा बहुत कुछ अप्रत्याशित कही जाएगी। मुसीबत के इस सैलाब ने सैकड़ों लोगों की जान ले ली। मरने वालों की सही तादाद बता पाना अब भी मुश्किल है, क्योंकि बहुत-से लोग लापता हैं। संकट में घिरे हजारों लोग बचाए भी गए हैं और इसका श्रेय खासकर सेना, भारत-तिब्बत सीमा पुलिस, सीमा सुरक्षा बल और सीमा सड़क संगठन के जवानों और कर्मियों को जाता है। लेकिन एक हफ्ते बाद भी हजारों लोग जगह-जगह फंसे हुए हैं। उन तक न खाना पहुंच पा रहा है न पानी और न ही उनकी स्थिति के बारे में उनके परिजनों को पता चल पा रहा है। उन्हें निकालने में मौसम से लेकर सड़कों के टूट जाने या मलबे से पट जाने तक अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। ये मुश्किलें तो अपनी जगह हैं ही, उत्तराखंड के आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की कोई सक्रिय भूूमिका नहीं दिखी है। पर यह कोई हैरत की बात नहीं है। छह साल पहले राज्य में इसका गठन तो हो गया, पर दो महीने पहले आई नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट के मुताबिक स्थापना के समय से इसकी एक भी बैठक नहीं बुलाई गई। इन छह सालों में अधिकांश समय भाजपा की सरकार थी और सवा साल से कांग्रेस की है। एहतियाती इंतजाम में कोताही की कसर आपदा के समय की सुस्ती ने पूरी कर दी। केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने उत्तरकाशी, केदारनाथ और बदरीनाथ का हवाई मुआयना करने के बाद स्वीकार किया कि बचाव और राहत के काम में समन्वय की कमी रही है। उन्होंने इसके लिए राज्य सरकार की खिंचाई करने में भी संकोच नहीं किया, अलबत्ता वहां कांग्रेस की ही सरकार है। शिंदे ने यह सलाह भी दी कि राज्य के मुख्यमंत्री को छोड़ कर आपदा-पीडि़त क्षेत्र का वीआइपी दौरा या हवाई मुआयना न हो, क्योंकि इससे अधिकारियों को सुरक्षा संबंधी चिंता और अन्य प्रोटोकॉल के पालन में लगना पड़ता है, जिससे आपातकालीन काम प्रभावित होता है। यह ठीक सुझाव है और इसे नियम में बदला जाना चाहिए। लेकिन हमारे देश में आपदा के समय भी राजनीति का खेल चलता रहता है। गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के चुनाव अभियान संयोजक नरेंद्र मोदी के हैलीकॉफ्टर को उतरने से ग्रहमंत्री ने मना कर दिया लेकिन उसी दौरान राहुल के दौरे को हरी झंडी दिखा दी गई। हो सकता है कुछ दिन और बीतने पर इस आपदा को लेकर सियासी आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला तेज हो, जिसकी एक खास वजह यह होगी कि अगले आम चुनाव में अब एक साल से भी कम समय रह गया है। दूसरी ओर, यह बहस भी तेज होगी कि यह आपदा कितनी कुदरती है और कितनी मानव-निर्मित। इसमें दो राय नहीं कि अति-वृष्टि और बादल फटना प्राकृतिक घटना है। पर उत्तराखंड में आई आपदा के कुछ और भी पहलू हैं। जंगलों की अंधाधुंध कटाई, नदियों के किनारे तक इमारतों के बेतहाशा निर्माण और ढेर सारी बांध परियोजनाओं के जरिए नदियों के स्वाभाविक बहाव में बाधा से हिमालयी क्षेत्र में बाढ़ का भी खतरा बढ़ा है और भूस्खलन का भी। पर्यावरण संबंधी सवाल जब भी उठते हैं उन्हें विकास में बाधा मान दरकिनार कर दिया जाता है। मगर ऐसा विकास किस काम का, जिसे कुदरत एक झटके में बहा ले जाए। रुद्रप्रयाग, भागीरथी और चमोली में अलकनंदा और भागीरथी के किनारे बनाई गई सैकड़ों इमारतें बह गर्इं और फिर उनके मलबे ने बाढ़ को और भयानक बनाया। इस तरह के खौफनाक मंजर को रोकने के लिए अभी से प्रयत्नशील होकर इसकी रोकथाम के उपाय खोजे जा सकते हैं।              गायत्री पाराशर

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