Friday, 28 June 2013

परिणय बाजार में हर कीमत के हैं दूल्हें

दहेज एक बहुत बड़ा सामाजिक मुद़्दा जिसकी रोकथाम के लिए तमाम कानून भी बनाए गए हैं। दहेज की मांग करने वालों को जेल की हवा खाने का प्रावधान है। भारत में इसको खत्म करने के लिए कई सामाजिक संस्थाओं ने भी वीणा उठाया लेकिन इसको जड़ से खत्म न किया जा सका। दहेज के कारण कई विवाहितों को अपनी जान से हाथ धोने पड़े हैं तो कईंयों ने दहेज के कारण किए गए उत्पीडऩ से तंग आकर आत्महत्या कर ली तो कईयों को ससुरालियों ने ही मौत के घाट उतार दिया। माना जाता है कि 'दुल्हन ही दहेज हैÓ लेकिन ये सिर्फ दूसरों को कहने व सुनने के लिए हैं, इसको आत्मीयता में कोई नहीं उतारता। समाज ने हो रहे घोटालों का जमकर विरोध किया। जब कोई नेता भ्रष्टाचार में संलिप्त पाया जाता है तो खूब खरीखोटी सुनाकर अपना मन हल्का कर लेते हैं, काले धन व भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जमकर छींटाकशी कर देते हैं लेकिन जब बात बेटे के विवाह की आती है तो मुंह में पानी आ जाता है और उसी कतार में सबसे आगे खड़े नजर आते हैं। कोशिश होती है कि जितना पैसा बेटे की पढ़ाई में खर्च किया है सब को मय सूत के बसूलने की कोशिश होती है। आज भी समाज का एक बड़ा तबका दहेत लेने व देने में विश्वास रखता है। घर में बेटी के पैदा होते ही पिता के कंधे झुक जाते हैं। न चाहते हुए भी सोचता है काश! लड़का हुआ होता तो कम से कम दहेज तो न देना होता। लेकिन क्या करें उसी समाज के डर से उसे बेटी को पढ़ाना लिखाना भी पड़ता है। लेकिन साथ- साथ एक और व्यथा मन का सताती है कि अगर लड़की ज्यादा पढ़ जाएगी तो पढ़ा लिखा ही दामाद ढ़ूढऩा पडेगा। इसलिए आस-पडौसी भी मुफ्त में राय दे देते हैं कि 'क्यों पढ़ाई में इतना खर्च कर रहे हो जितना ज्यादा पढ़ेगी उतना ही ज्यादा दहेज देना पड़ेगाÓ। आखिर पड़ौसियों की बात में भी सच्चाई है लड़की जितनी ज्यादा पढ़ी लिखी होगी उसके लिए वर तो उसके योग्य ही ढ़ूढऩा पड़ेगा। क्या करें मां बाप भी मजबूर होते हैं। बेटी की आकांक्षाओं को देखते हैं तो पढ़ाने पर मजबूर हो जाते हैं और जब शादी की सोचते हैं तो घबरा जाते हैं। माना जाता है कि आज के दौर की लड़कियां मां-बाप पर बौझ नहीं होती , कहीं तक ये बात ठीक है लेकिन जब बात शादी की आती है तो जितना बाप का कद होता है उससे कहीं ऊंचे घराने में अपनी बिटिया की शादी की सोचता है। खैर छोडि़ए अब बात करते हैं बेटे के पिता की। भाई उसके तो दोनों हाथों में लड्डू होते हैं। बेटे के पैदा होने पर घर में खुशियों के अंबार लग जाते हैं। जेब चाहे खाली हो फिर भी हजारों के उपहार बंट जाते हैं। क्यों न बंटे भाई बीस-पच्चीस सालों बाद मय सूत के जो वसूल हो जाएगे। जब से बेटा पैदा होता है बाप का सीना चौड़ा हो जाता है। अगर बेटा पढऩे में अव्वल है तो नौकरी लगना तय है और अगर नौकरी लग गई तो फिर क्या है उसके बारे न्यारे हो जाते हैं। सुनने में आया है कि लड़केवालों ने दहेज लेना बंद कर दिया है। अरे भाई क्यों मजाक करते हो पहले घंूस खोरी खुलेआम होती थी लेकिन थोड़ी सख्ती के बाद से टेबल के नीचे से होने लगी है। आजकल परिणय सूत्र के बाजार में हर कीमत के दूल्हे हैं। अगर सरकारी नौकरी वाला है तो दस से चालीस लाख सीधे खाते में ट्रांसफर हो जाती है और अगर सरकारी नौकरी व अच्छा खासा खानदान हुआ तो फिर कहने ही क्या! फिर तो आप अंदाजा लगा सकते हैं। प्राइवेट नौकरी वालों को भी अच्छी कीमत मिल जाती है।  आखिर इस पढ़े लिखे समाज में बेटियों के साथ ये बेरूखी क्यों। क्यों पैदा होने के बाद से ही लड़की को बोझ मान लिया जाता है। पढ़ाने लिखाने के बाद भी उसे सीधी गाय की तरह एक खूंटे से क्यों बांध दिया जाता है। क्यों आज भी बेटियों के जन्म के बाद भी पिताओं के माथे पर ङ्क्षचता की लकीरे आ जाती हंै। ये सच है न समाज कल बदला था और न आज बदला है। महिलाओं के साथ ज्यादतीय होती रहीं हैं और भविष्य में भी होती रहेगी, लेकिन इनको जड़ से खत्म किया जा सकता है। अगर सभी महिलाएं व उनके पिता ये ठान लें कि दहेज मांगने वालों के यहां अपनी बेटी की शादी नहीं करेंगे तो दहेज का अस्तित्व खुद व खुद समाप्त हो जाएगा।     गायत्री पाराशर  

अपदा का ये कैसा मंजर

प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने का नतीजा सबके सामने हैं। लगातार हो रही पेड़ों की कटाई व पहाड़ों के कटाव से ये गंभीर स्थिति पैदा हुई। कई दिनों तक लगातार बारिश और नदियों में जल-स्तर क्रमश: बढ़ते जाने के फलस्वरूप जो बाढ़ आती है उसका पहले से अंदाजा हो जाता है। लेकिन अचानक अतिवृष्टि, बादल फटने और भूस्खलन के कारण उत्तराखंड में आई आपदा बहुत कुछ अप्रत्याशित कही जाएगी। मुसीबत के इस सैलाब ने सैकड़ों लोगों की जान ले ली। मरने वालों की सही तादाद बता पाना अब भी मुश्किल है, क्योंकि बहुत-से लोग लापता हैं। संकट में घिरे हजारों लोग बचाए भी गए हैं और इसका श्रेय खासकर सेना, भारत-तिब्बत सीमा पुलिस, सीमा सुरक्षा बल और सीमा सड़क संगठन के जवानों और कर्मियों को जाता है। लेकिन एक हफ्ते बाद भी हजारों लोग जगह-जगह फंसे हुए हैं। उन तक न खाना पहुंच पा रहा है न पानी और न ही उनकी स्थिति के बारे में उनके परिजनों को पता चल पा रहा है। उन्हें निकालने में मौसम से लेकर सड़कों के टूट जाने या मलबे से पट जाने तक अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। ये मुश्किलें तो अपनी जगह हैं ही, उत्तराखंड के आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की कोई सक्रिय भूूमिका नहीं दिखी है। पर यह कोई हैरत की बात नहीं है। छह साल पहले राज्य में इसका गठन तो हो गया, पर दो महीने पहले आई नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट के मुताबिक स्थापना के समय से इसकी एक भी बैठक नहीं बुलाई गई। इन छह सालों में अधिकांश समय भाजपा की सरकार थी और सवा साल से कांग्रेस की है। एहतियाती इंतजाम में कोताही की कसर आपदा के समय की सुस्ती ने पूरी कर दी। केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने उत्तरकाशी, केदारनाथ और बदरीनाथ का हवाई मुआयना करने के बाद स्वीकार किया कि बचाव और राहत के काम में समन्वय की कमी रही है। उन्होंने इसके लिए राज्य सरकार की खिंचाई करने में भी संकोच नहीं किया, अलबत्ता वहां कांग्रेस की ही सरकार है। शिंदे ने यह सलाह भी दी कि राज्य के मुख्यमंत्री को छोड़ कर आपदा-पीडि़त क्षेत्र का वीआइपी दौरा या हवाई मुआयना न हो, क्योंकि इससे अधिकारियों को सुरक्षा संबंधी चिंता और अन्य प्रोटोकॉल के पालन में लगना पड़ता है, जिससे आपातकालीन काम प्रभावित होता है। यह ठीक सुझाव है और इसे नियम में बदला जाना चाहिए। लेकिन हमारे देश में आपदा के समय भी राजनीति का खेल चलता रहता है। गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के चुनाव अभियान संयोजक नरेंद्र मोदी के हैलीकॉफ्टर को उतरने से ग्रहमंत्री ने मना कर दिया लेकिन उसी दौरान राहुल के दौरे को हरी झंडी दिखा दी गई। हो सकता है कुछ दिन और बीतने पर इस आपदा को लेकर सियासी आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला तेज हो, जिसकी एक खास वजह यह होगी कि अगले आम चुनाव में अब एक साल से भी कम समय रह गया है। दूसरी ओर, यह बहस भी तेज होगी कि यह आपदा कितनी कुदरती है और कितनी मानव-निर्मित। इसमें दो राय नहीं कि अति-वृष्टि और बादल फटना प्राकृतिक घटना है। पर उत्तराखंड में आई आपदा के कुछ और भी पहलू हैं। जंगलों की अंधाधुंध कटाई, नदियों के किनारे तक इमारतों के बेतहाशा निर्माण और ढेर सारी बांध परियोजनाओं के जरिए नदियों के स्वाभाविक बहाव में बाधा से हिमालयी क्षेत्र में बाढ़ का भी खतरा बढ़ा है और भूस्खलन का भी। पर्यावरण संबंधी सवाल जब भी उठते हैं उन्हें विकास में बाधा मान दरकिनार कर दिया जाता है। मगर ऐसा विकास किस काम का, जिसे कुदरत एक झटके में बहा ले जाए। रुद्रप्रयाग, भागीरथी और चमोली में अलकनंदा और भागीरथी के किनारे बनाई गई सैकड़ों इमारतें बह गर्इं और फिर उनके मलबे ने बाढ़ को और भयानक बनाया। इस तरह के खौफनाक मंजर को रोकने के लिए अभी से प्रयत्नशील होकर इसकी रोकथाम के उपाय खोजे जा सकते हैं।              गायत्री पाराशर